Watching a moth hit itself against a bulb made me ponder on its attraction to the flame and on the very nature of the moth and flame...the idiom of love that they have come to represent.
The flame complete in itself is unaware of the moth....it just IS. The moth in its search for completion is happy to be extinguished in the flame....both true to their nature....both beautiful....both just ARE.....for us to romanticise, interpret, experience and perhaps learn from too? :-).
And from there burst forth this:-)
परवाना जलकर राख हो गया
शमा जलती रही बेपरवाह
देह की राख देख
रूह हँसकर बोली
तू क्या जाने ऐ शमा
उसने क्या पाया और क्या खोया
तू बस जलती है दिन रात
ना पाने की इच्छा ना खोने का डर
पर वो जो तुझ में राख हुआ
जल कर तुझी में ख़ाक हुआ
जान कर ख़ुशी से फ़ना हुआ
उसे तू ने पहचाना नहीं,
और पहचाना तो सराहा नहीं
परवाने को क्या
खुद को भी आज़माया नहीं
अब पिघलती रूह की फ़रियाद सुन ले ऐ शमा
इस राख को तो गले लगा ले ऐ शमा
बुझहने से पहले जलने का एहसास
कुछ पल तो महसूस कर ले ऐ शमा
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